मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के कई बार उसके सामने ऐसे कठिन पड़ाव आते हैं, जहां उसे पता तो होता है, कि जो हो रहा है वह सही नहीं है, फिर भी बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो सही और ग़लत के बीच का फ़र्क़ समझते भी हैं, और जो अनुचित है, उसके विरुद्ध खड़े भी होते हैं. इसी को लेकर एक ऐसी घटना है, जिसमें बहुत कम उम्र में अपने वरिष्ठ लोगों के ग़लत फ़ैसले के ख़िलाफ़ खड़ा होने वाला एक बालक बाद में एक बहुत महान इंसान बनायह घटना भारत देश की आज़ादी से पहले की है. एक बार एक विद्यालय में उसके मैनेजमेंट द्वारा एक फ़ैसला सुनाया गया, कि जो विध्यार्थी उस विद्यालय में पढ़ रहे हैं, उन्हें उसी स्कूल से किताबें खरीदनी होंगी. दरअसल इसके पीछे बहुत बड़ा कारण था, क्योंकि स्कूल से किताबें ख़रीदने पर स्कूल प्रबंधन को आर्थिक लाभ होने वाला था.
इस फैसले के अनुसार सभी छात्रों ने स्कूल से ही किताबे खरीदीं. लेकिन एक बालक ने इस फैसले को मानने से इंकार किया और विरोध करने लगा. कई लोगों ने इस बालक को समझाया लेकिन वह अपने फैसले पर अडिग रहा. और फिर कुछ समय बाद धीरे-धीरे विद्यार्थी और उनके पैरेंट्स भी इस बालक के पक्ष में खड़े हो गए. आंदोलन इस स्तर पर पहुंच गया कि स्कूल मैनेजमेंट को अपना फैसला बदलना पड़ा. यह बालक कोई और नहीं बल्कि सरदार वल्लभ भाई पटेल थे.
इस विषय पर वल्लभ भाई पटेल का कहना था कि शिक्षक हमारे गुरु हैं, सम्मानीय हैं लेकिन विद्यालय द्वारा किताबें बेचने का जो फैसला था, उसके पीछे लालच था. इस कहानी का यही तात्पर्य है, अगर हमारे सम्मानीय और गुरुजन भी कुछ गलत करते हैं तो उनका विरोध करने में भी असहज नहीं होना चाहिए. यदि किताबें इस तरह से स्कूल में ही बेची जाएंगी तो जो शिक्षा छात्रों तक पहुंचनी चाहिए, वो पहुंचेगी ही नहीं.
इस बालक की हिम्मत देखकर बाद में सभी लोगों ने उसकी बहुत प्रशंसा की. सरदार पटेल के स्वभाव में ये बात बचपन से थी कि जहां भी कुछ गलत देखते, उसके विरोध में खड़े हो जाते थे.
हम सबके सामने यदा कदा ऐसे अवसर आते हैं, ऐसे में हमें सही और ग़लत के बीच का अंतर समझकर सही बात का समर्थन करना चाहिए, और ग़लत का विरोध करने की हिम्मत होनी चाहिए.