शिक्षा हमेशा से ही भारत की विशेषता रही है। प्राचीन भारत में गुरुकुल, आश्रम और मठों के साथ ही मंदिर भी शिक्षा के केंद्र होते थे, जहां धार्मिक शिक्षा के साथ ही जीवन शैली को उच्च स्तर की बनाने की शिक्षा दी जाती थी। पुराने समय में ऐसा ही एक बड़ा शिक्षा केंद्र था शारदा पीठ। विद्या की देवी सरस्वती यानी मां शारदा के नाम पर बना यह धर्मस्थल एक बड़ा विश्वविद्यालय भी था, जो देश- विदेश तक प्रसिद्ध था।
अपने समय के प्रसिद्ध शारदा विश्वविद्यालय में पांच हजार से ज्यादा विद्यार्थी पढ़ते थे। आद्य शंकराचार्य भी यहीं पढ़े थे, जिन्होंने सनातन धर्म की रक्षा के लिए देश के चारों कोने में चार पीठों की स्थापना की थी।
शारदा पीठ भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वश्रेष्ठ मंदिर विश्वविद्यालयों में से एक हुआ करता था।
शारदा पीठ विश्वविद्यालय भारत के उरी सेक्टर से करीब 70 किलोमीटर दूर स्थित वर्तमान के पाक अधिकृत कश्मीर में है। वहां जाने के लिए दो मार्ग हैं, पहला मुजफ्फराबाद की तरफ से और दूसरा पुंछ-रावलकोट की ओर से।
उरी से मुजफ्फराबाद वाला रूट कॉमन है। ज्यादातर लोग इसी रूट से जाते हैं। यह पीठ नीलम नदी के किनारे स्थित है।
सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि सनातन धर्म के दोनों ही संप्रदायों का यह प्रमुख स्थान है। शैव संप्रदाय के जनक कहे जाने वाले आद्य शंकराचार्य और वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य दोनों ही यहां आए थे। इन दोनों ने ही इस पीठ पर दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की। शंकराचार्यजी यहीं सर्वज्ञपीठम पर विराजित हुए तो रामानुजाचार्यजी ने यहीं पर श्रीविद्या का भाष्य प्रवर्तित किया। 141 ईस्वी में इसी स्थान पर चौथी बौद्ध परिषद का आयोजन किया गया था। शारदा पीठ में बौद्ध भिक्षुओं और हिंदू विद्वानों ने मिलकर यहां शारदा लिपि का आविष्कार किया था। ऐसे ही कई कारण हैं जिसकी वजह से शारदा पीठ में पूरे उपमहाद्वीप से विद्वानों का आगमन होता था।
आज के समय में बाबा अमरनाथ, खीर भवानी, रघुनाथ मंदिर और अनंतनाग के मार्तंड सूर्य मंदिर के बाद शारदा पीठ समस्त सनातनियों के साथ ही कश्मीरी पंडितों के लिए प्रसिद्ध पवित्र स्थलों में से एक रहा है। देखरेख के अभाव में यह प्रसिद्ध विश्वविद्यालय और शारदा मंदिर अब लगभग खंडहर में तब्दील हो चुका है। सन 1948 के बाद से इस मंदिर की मरम्मत नहीं हुई। 19वीं सदी में महाराजा गुलाब सिंह ने इसकी आखिरी बार मरम्मत कराई थी। इसके बाद से यह इसी हाल में है।
अनुमान है कि शारदा विश्वविद्यालय एवं मंदिर 5 हजार वर्ष पुराना है। आजादी के बाद पाकिस्तान सीमा में चला जाने के बाद शारदा देवी मंदिर में पिछले 70 साल से पूजा नहीं हुई है।
ऐसा भी माना जाता है कि भगवान शंकर भ्रमण करते हुए यहां से निकले थे, यानी भगवान शिव के चरण यहां पड़े थे। इसीलिए इस मंदिर का धार्मिक महत्व सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर जैसा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शंकर ने सती के शव को लेकर जो तांडव किया था, उसमें सती का दाहिना हाथ इसी पर्वतराज हिमालय की तराई कश्मीर में गिरा था। माना जाता है कि यहां देवी का दायां हाथ गिरा था।
यही कारण है कि सनातन परंपरा के अनुसार नीलम नदी के किनारे मौजूद इस मंदिर को देवी शक्ति के 18 महाशक्तिपीठों में से एक माना गया है।
इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो 237 ईस्वी पूर्व अशोक के साम्राज्य में इस शारदा पीठ की स्थापना करीब 5,000 साल पहले हुई थी।
11वीं शताब्दी में लिखे गए संस्कृत ग्रंथ राजतरंगिणी में शारदा देवी पीठ का काफी उल्लेख है। इसी शताब्दी में कुछ अन्य धर्मावलंबियों ने भी शारदा देवी और इस केंद्र के बारे में अपनी किताब में लिखा है। इन सबके बावजूद इस महान विश्वविद्यालय और आस्था के बड़े केंद्र का लुप्त होना हर सनातन धर्मावलंबी के मन में टीस पैदा करता है।