शरणागत वत्सल श्री राम

राम जी की छावनी में विभीषण के आने पर जामवंत नल नील अंगद आदि अपने अपने विचार व्यक्त करते हैं।कोई विभीषण को रावण का दूत, कोई शत्रु का भाई और कोई शत्रु कहता है ,तो कोई राक्षस कहता है और विभीषण को शरण ना देने की सलाह देता है परंतु हनुमान जी कहते हैं–

‘कोई भी प्राणी जाति या धर्म से अच्छा बुरा नहीं बल्कि अपने कर्मों से अच्छा बुरा होता है’

राम जी कहते हैं -मेरा एक प्रण है कि जो शरण में आए उसे अभय कर दो। यदि शत्रु भी शरण में आए और दया की याचना करे तो उसे भी निराश नहीं करना चाहिए। यह तो विभीषण है, यदि रावण स्वयं भी शरणागत बनकर आए तो भी मैं अपना पन निभाऊंगा। उसे शरण दूंगा। ऐसे हैं शरणागत वत्सल प्रभु श्री राम।
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विभीषण को राम का आश्रय मिल जाता है। लंका की निर्दोष प्रजा की सुरक्षा को लेकर चिंतित विभीषण को आश्वस्त करते हुए राम जी कहते हैं-हम केवल उन्हीं का संहार करेंगे जो युद्ध की इच्छा से हमारे सम्मुख आएंगे।

इस प्रकार राम विभीषण को एक धर्म युद्ध का आश्वासन देते हैं और स्वयं में समस्त नदियों और तीर्थों का जल समेटे हुए सागर के पवित्र जल से वहीं समुद्र किनारे विभीषण का लंकापति के रूप में राजतिलक करते हैं। प्रसंग का संकेत यह है कि यदि हम सत्य धर्म और परोपकार के रास्ते पर चलें तो सुख साधन और पद पदवियाँ अपने आप मिलती रहती हैं,जैसे विभीषण को मिली।
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Jai Shriram 🙏#goodmorning

Gepostet von Arun Govil am Mittwoch, 27. Mai 2020

युद्ध में कूटनीति का प्रयोग करते हुए रावण अपने गुप्तचर को भेजकर सुग्रीव को संसार के सारे धन वैभव और ऐश्वर्य का लालच देकर रावण की तरफ मिलाने का प्रयास करता है.. लालच के साथ-साथ धमकी भी देता है कि अगर रावण का साथ नहीं दिया तो सर्वनाश हो जाएगा। परंतु सुग्रीव कहते हैं कि  ‘सारे भौतिक सुख ऐश्वर्य नाशवान हैं और समाप्त हो जाने वाले हैं। लाभ लोभ और स्वार्थ के लिए जो अपने धर्म और कर्तव्य से विमुख हो जाए उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा। जिसने मुझ पर उपकार किया, जिसने मित्रवत व्यवहार किया। मैं उसके साथ छल करूं,उसका साथ छोड़ दूं यह कदापि नहीं हो सकता।’

मित्रता का यह व्यवहार हमें अपने जीवन में भी उतारना चाहिए। इस प्रसंग में सुग्रीव जी यह भी कहते हैं कि किसी भी लाभ या किसी भी डर के कारण  कभी भी गलत का या अधर्म का साथ नहीं देना चाहिए।
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पाप अहंकार और अधर्म के साथ होने के कारण रावण जैसा महाज्ञानी त्रिलोक विजयी भी उचित अनुचित नहीं सोच पा रहा है वहीं सत्य और धर्म के साथ होने के कारण वानर शरीर में होकर भी सुग्रीव को उचित अनुचित का पूरा ज्ञान और ध्यान है।

रावण का दूत निराश लौट जाता है। ये है सत्य की शक्ति।
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सेना सहित सागर पार जाने के उपायों पर विचार करते हुए। विभीषण की सलाह पर राम जी सागर से रास्ता मांगने की बात करते हैं तो लक्ष्मण जी कहते हैं कि भैया बाण चलाकर समुद्र को सुखा क्यों नहीं देते। राम जी कहते हैं।

दूसरे को अवसर दिए बिना उस पर शस्त्र उठाना अहंकार जनित अत्याचार का सूचक है सच्चे शक्तिशाली को अपनी विनम्रता कभी नहीं खोनी चाहिए और ऐसा विचार करके राम जी सागर से रास्ता देने की प्रार्थना करने वहीं बैठ जाते हैं।