ब्रह्मांड के तीनों महा अस्त्रों के विफल हो जाने पर मेघनाथ को यह आभास हो जाता है कि लक्ष्मण कोई साधारण मानव नहीं बल्कि कोई अवतारी देवता हैं। मेघनाथ को अपने अहंकार और अपनी भूल का आभास होता है और वह अपने पिता रावण को भी समझाता है परंतु रावण अपने ज्ञान और अभिमान के कारण अपने निर्णय पर अडिग रहता है।
मेघनाद कहता है– ‘जो पुत्र अपने पिता से विमुख हो जाते हैं, विपत्ति में छोड़कर अपने स्वार्थ के लिए उन्हें छोड़ देते हैं,भगवान भी उनका आदर नहीं करते। पुत्र का केवल एक ही धर्म है अपने पिता के चरणों मे अपने सुख संपत्ति वैभव सबका बलिदान दे देना।
माता मंदोदरी से आशीर्वाद लेकर मेघनाथ आगे बढ़ते हैं तो उनकी पत्नी सुलोचना कहती है- ‘स्वामी आप पिता की इच्छा से कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ रहे हैं मैं बिल्कुल मना नहीं करूंगी। ‘पत्नी का कर्तव्य होता है पति की कर्तव्य पूर्ति में उसका साथ देना, उसका उत्साह बढ़ाना। ना कि अपने मोह से उसे निर्बल करना।’ ‘जाइए स्वामी अपने कर्तव्य का पालन कीजिए।’
सुलोचना समझ गई थी कि अब उसके सुहाग का जीवित बचना असंभव है फिर भी उसने अपनी आंखों में आंसू नहीं आने दिए धन्य हैं ऐसी नारियां धन्य है उनका आदर्श। एक पुत्र मेघनाद- जिसने अपने पिता के निर्णय पर अपना प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया।
एक माता मंदोदरी- जिसने पति की इच्छा के सामने अपने पुत्र का मोह त्याग दिया। एक पत्नी सुलोचना- जिसने पति के कर्तव्य पूर्ति में सहायक बनने के लिए स्वयं का विधवा होना स्वीकार कर लिया। ये है रामायण और ऐसे हैं रामायण के पात्।
Jai Shriram 🙏
Gepostet von Arun Govil am Dienstag, 19. Mai 2020
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मेघनाथ लक्ष्मण जी के हाथों वीरगति को प्राप्त होता है। रावण को विश्वास नहीं होता कि मेघनाथ मारा जा सकता है। वो कहता है- ‘मृत्यु तो मेरी दासी है वो मेघनाथ को कैसे मार सकती है? उसके नाना माल्यवान कहते हैं ‘रावण ! मेघनाथ को मृत्यु ने नहीं तुम्हारे अहंकार और तुम्हारी महत्वाकांक्षा ने मारा है।’
यह प्रसंग हमें आज भी ध्यान में रखना चाहिए – कुछ माता पिता अपनी महत्वाकांक्षा या अपने स्टेटस के चक्कर में अपने बच्चों की योग्यता क्षमता का ध्यान न रखते हुए अपने विचार उन पर थोपते हैं जिसका परिणाम उचित नहीं होता।
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मेघनाथ की मृत्यु से रावण ज्वालामुखी की तरह फट पड़ता है, सीता का वध करने के लिए अपनी चंद्रहास खड्ग उठा लेता है। उसके ससुर मय उसे रोकते हैं और कहते हैं — ‘स्त्री हत्या से बड़ा पाप, अधर्म और कायरता दूसरी कोई नहीं।’
राक्षस के मुख से ही सही किंतु यह सीख रामायण की है, इसे आज का इंसान अगर अपने जीवन में उतार ले तो आए दिन हो रही स्त्री के प्रति हिंसा, बलात्कार और उनकी हत्या काफी हद तक अपने आप समाप्त हो सकती है।
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उधर रावण अंतिम युद्ध की इच्छा से अपनी सिद्ध की हुई शक्तियों को जगाने के लिए शिवजी की आराधना करने बैठ जाता है। इधर रामजी को अगस्त ऋषि सूर्य आराधना की दीक्षा देकर उनकी सुरक्षा और विजय सुनिश्चित करते हैं।
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रावण कहता है ‘यदि राम और लक्ष्मण मानव हैं तो उन्हें मार कर मैं अपनी कीर्ति अमर करूंगा और अगर वे दोनों भगवान हैं तो उनके हाथों मारा जाकर भी मैं त्रिलोक में अमर हो जाऊंगा।’ और युद्ध के लिए निकल जाता।
इधर राम जी अपनी सेना को संबोधित करते हैं और कहते हैं- मैं आप सबके सामने प्रतिज्ञा करके कहता हूं कि आज संग्राम में देवता, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध और तीनो लोकों के प्राणी राम का रामत्व देखेंगे। आज मैं वो पराक्रम दिखाऊंगा कि जब तक यह पृथ्वी रहेगी, इस जगत के चराचर जीव और देवता भी उसकी चर्चा करेंगे। वीरो !राक्षसों की सेना पर इस प्रकार टूट पड़ो जैसे हिरणों के झुंड पर सिंह आक्रमण करता है।
और इस प्रकार धर्म से अधर्म का यह महायुद्ध अपनी निर्णायक अवस्था में पहुंचता है।
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