शास्त्रों में कहा गया है कि हमें हमेशा अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करना चाहिए। क्योंकि सारा ज्ञान किताबों से नहीं आता बल्कि कुछ ज्ञान जीवन जीने के अनुभवों से भी आता है। इसलिए हमें अपने से बड़ों के अनुभवों का सम्मान करना चाहिए और उनकी कही गई बातों का अनादर नहीं करना चाहिए। वरना हमें भविष्य में पछताना पड़ सकता है। इस बात को समझाने के लिए भगवान गौतम बुद्ध ने एक जातक कथा कही है। जातक कथा कुछ इस तरह है कि एक बार काशी के नजदीकी गांव में एक कुशल ढोल-वादक अपनी पत्नी और पुत्र के साथ रहता था। वह अत्यंत निर्धन था और जैसे-तैसे ढोल बजाकर अपने परिवार का गुजारा कर रहा था।
एक बार काशी शहर में एक भव्य मेले का आयोजन किया गया। इस बात की जानकारी जब ढोल-वादक की पत्नी को चली तो वह खुश हो गई। उसने अपने पति से कहा कि आप भी मेले में जाकर ढोल बजाइए। मेले में ढोल बजाने से अच्छा धन मिलेगा और हमारी निर्धनता दूर होगी। ढोल-वादक को अपनी पत्नी का सुझाव अच्छा लगा और वह अपने बेटे व ढोल के साथ काशी के मेले में पहुंच गया। काशी का भव्य मेला देख ढोल-वादक ख़ुशी से भर गया। उसने सोचा आज तो अच्छा धन कमाया जा सकता है। ढोल-वादक ने अपना ढोल निकाला और उत्साह से ढोल बजाने लगा। ढोल बजाने में ढोल-वादक को कुशलता हासिल थी, इसलिए शाम होते-होते उसके पास बहुत सारा धन इकट्ठा हो गया।
पिता-पुत्र दोनों ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर लौटने लगे। घर लौटने से पहले पिता ने अपने पुत्र के लिए उसकी मनपसंद चीजें और मिठाई भी खरीदी। पुत्र भी ख़ुशी में मगन होकर जोर-जोर से ढोल बजाते हुए चल रहा था। इस दौरान रास्ते में जंगल आया तो पिता ने पुत्र से कहा कि ढोल मत बजाओ और यदि तुम्हें ढोल बजाना ही है तो इस तरह बजाओ जैसे राजा की सवारी जा रही हो। लेकिन पुत्र ने पिता की बात को अनसुना कर दिया और ढोल बजाना जारी रखा।
बीच जंगल में ढोल की आवाज सुनकर पिता-पुत्र को डाकुओं ने घेर लिया। उन्होंने पिता-पुत्र के साथ मारपीट की और उनके पास से सारा धन व सामान लूट लिया। सब कुछ लुट जाने के बाद पुत्र को अहसास हुआ कि पिता ने उसे क्यों कहा था कि, ‘ढोल इस तरह बजाओ जैसे राजा की सवारी जा रही हो।’ हालांकि अब पुत्र के पास पछताने के सिवा कुछ नहीं बचा था।