ये धर्मयुद्ध था, जिसमें ये फैसला होना था कि, धरती पर धर्म का साम्राज्य रहेगा या अधर्म का, ये बर्चस्व का भी युद्ध था, नीति और अनीति के बीच युद्ध था, इसीलिए इस महान संग्राम का नाम था महाभारत।
दो भाइयों की संतानों में हुए इस युद्ध में पांडवों के साथ कौरवों में भी एक से बढ़कर बलशाली थे। महाभारत के प्रमुख पात्र धृतराष्ट्र में इतना बल था कि वे लोहे के पुतले को भी मसल देने में सक्षम थे। इसी तरह कौरवों में प्रमुख दुर्योधन भी कम बलिष्ठ नहीं था। सही मायने में दुर्योधन पांडवों के भीम की टक्कर का योद्धा था। यदि उसके युद्ध कौशल की बात की जाए, तो भी वह गदाधारी भीम के समकक्ष ही था। ऐसा इसलिए भी क्योंकि उसके युद्ध कौशल के गुरु और कोई नहीं भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम थे।
महाभारत युद्ध के अठारहवें यानी अंतिम दिन तो उसकी ताकत चरम पर थी, उस दिन वह एक गलती नहीं करता तो उसे परास्त करना पांडवों के भी वश में नहीं था। उसका शरीर लोहे की तरह मजबूत हो गया था। महाभारत युद्ध के अंतिम दिन माता गांधारी के सामने दुर्योधन पहुंचा और उसने युद्ध मैदान में जाने की आज्ञा मांगी, तो गांधारी ने दुर्योधन की विजय सुनिश्चित करने के लिए अपने एक वरदान का प्रयोग किया। बरसों-बरस तक आंखों पर पट्टी बांध कर रखने के कारण उन्हें वरदान था कि वे अपनी आंखों की पट्टी खोल कर जिसे भी पहले देखेंगी वह वज्र की तरह मजबूत हो जाएगा।
गांधारी ने दुर्योधन को सरोवर में स्नान करने के बाद निर्वस्त्र अवस्था में ही अपने सामने प्रस्तुत होने के लिए कहा। भगवान श्री कृष्ण गांधारी के इस वरदान के बारे में जानते थे। भगवान श्री कृष्ण सरोवर के निकट पहुंचे। जैसे ही दुर्योधन स्नान करके सरोवर से बाहर निकला और अपने वस्त्रों को दूर फेंका, श्री कृष्ण ने उसे लोक लाज की दुहाई दी और कहा माता ने भले ही कह दिया हो लेकिन लोग तुम्हें क्या कहेंगे? यह सुनकर दुर्योधन ने धोती पहन ली और माता गांधारी के सामने जा पहुंचा। दुर्योधन के पहुंचने पर गांधारी ने जैसे ही अपनी आंखों की पट्टी खोली और दुर्योधन के शरीर पर दृष्टि डाली उसका शरीर लोहे की तरह मजबूत हो गया। लेकिन धोती पहन लेने के कारण दुर्योधन का कमर से नीचे का हिस्सा पहले जैसा ही रह गया। माता गांधारी दुर्योधन की इस गलती पर दुखी हो गई, उन्होंने कहा- पुत्र तूने धोती क्यों पहन ली, तेरा कमर से नीचे का हिस्सा वज्र नहीं हो पाया। यदि दुर्योधन मां की बात पूरी तरह मान लेता तो संभवतः पांडव उसका वध नहीं कर पाते।
पर नियति ने पहले ही सब निश्चित कर लिया था। ये धर्म और अधर्म का संग्राम था, और धर्म की स्थापना के लिए दुर्योधन का अंत होना आवश्यक था।