धर्म का अधर्म से छिड़ गया संग्राम

भीषण महासंग्राम में वानर सैनिकों का पराक्रम अपने चरम पर है और हनुमान जी के हाथों रावण के महा पराक्रमी सेनानायक दुर्मुख का वध हो जाने पर सुग्रीव जी राम जी से कहते हैं कि ‘हनुमान द्वारा दुर्मुख जैसे विकराल शत्रु का वध हमारी विजय का शुभारम्भ है’

इस पर राम जी कहते हैं-आरंभ और अंत के मध्य बहुत बड़ा अंतर होता है मित्र देखते जाइये।

यहां सीखने वाली बात यह है कि सफलताओं पर उत्साह तो होना चाहिए पर लक्ष्य के प्रति असावधानी बिल्कुल नहीं।
जब तक लक्ष्य ना मिले तब तक आनंद में नहीं डूबना चाहिए।
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रावण का पुत्र प्रहस्त वानर सेना पर काल बनकर टूट रहा था उसे लक्ष्मण जी ने खेल ही खेल में यमलोक भेज दिया। प्रसन्न होते हुए राम जी ने साधुवाद दिया। प्रहस्त जैसे पराक्रमी का प्राणान्त करके हमारे वीर भ्राता लक्ष्मण ने शत्रु की पराजय के द्वार खोल दिए।
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खर का बेटा मकराक्ष, बदले की आग में जलता हुआ युद्ध के लिए आता है और ललकारते हुए कहता है मेरी मां ने प्रतिज्ञा की है कि वो राम का कटा हुआ सिर देखने के बाद ही मेरे पिता खर का अंतिम संस्कार होने देंगी।

मकराक्ष का यह संकल्प सुनकर लक्ष्मण जी,अंगद आदि उसका उपहास करते हैं तभी राम जी वहां आते हैं और कहते हैं,किसी वीर के संकल्प का उपहास करना वीरों को शोभा नहीं देता। इस वीर ने हमें युद्ध के लिए ललकारा है और युद्ध की चुनौती स्वीकार करना ही सच्चे क्षत्रिय का धर्म है।

ये हैं राम जो वीरों का यथोचित सम्मान भी करते हैं और चुनौतियों का प्रतिउत्तर भी देते हैं।
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कुछ ही देर के भीषण युद्ध मे मकराक्ष रामजी के हाथों मारा जाता है तो राम जी उसके संकल्प और उसकी वीरता की प्रसंशा करते हुए कहते हैं- मां के संकल्प पर अपने प्राण अर्पण करने वाले सपूत तुम्हें राम प्रणाम करता है
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युद्ध के पहले ही दिन दुर्मुख, प्रहस्त और मकराक्ष जैसे महा दानवों के मारे जाने पर रावण बौखला जाता है और स्वयं युद्ध के लिए आता है। राम जी को युद्ध के लिए ललकारता है तो पहला मोर्चा संभालते हैं सुग्रीव परन्तु वे रावण के आघात से मूर्छित हो जाते हैं। रावण उनपर बाण चलाने ही वाला होता है तभी लक्ष्मण जी अपने बाण से रावण का बाण काटकर कहते हैं ‘मूर्ख मूर्छित योद्धा पर प्रहार कर रहा है तुझे तो युद्ध के प्राथमिक नियम भी नहीं आते।’

रावण कहता है ‘जो रणभूमि में आ गया वो हर प्रकार से वध करने योग्य हो जाता है। हम इन मानवीय भावनाओं की निर्बलता में नहीं फंसते।’

लक्ष्मण जी कहते हैं ‘तुम सही कह रहे हो,तुम जैसे असभ्य लोगों को ये नीति नियम की बातें कहां समझ में आएंगी।’वैसे देखा जाय तो उस विचारधारा के लोग और वह छद्म युद्ध आज भी चल रहा है।
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Jai Shriram 🙏

Gepostet von Arun Govil am Mittwoch, 3. Juni 2020

इसी प्रसंग में लक्ष्मण जी का एक और संवाद बहुत ध्यान देने योग्य है, वे रावण को कहते हैं–‘भ्रष्टाचारी अन्यायी जब शब्दों से निरुत्तर हो जाता है तो वह शस्त्रों का प्रयोग करता है और ऐसे में विवश होकर सभ्य लोगों को भी शस्त्र उठाना पड़ता है।’

अगर ध्यान दें तो यह परिस्थिति आज भी समाज में बनी हुई। और प्रमाण देखना हो तो किसी भी न्यूज़ चैनल की डिबेट देख लीजिए।
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रावण से प्रचंड युद्ध करते-करते लक्ष्मण जी को मूर्छा आ जाती है, तभी रावण के सम्मुख आते हैं प्रभु श्री राम। रामजी अपने स्वभाव के अनुसार रावण की प्रशंसा भी करते हैं और उसे समझाने का भी प्रयास करते हैं परंतु उसे अपने त्रिलोक विजयी होने का अहंकार बहुत अधिक है। रामजी उसे कहते हैं –

जिसके हृदय में कपट और अधर्म होता है उसकी अवस्था तुम्हारी जैसी होती है जिसे लंका के स्वर्ण सिंहासन पर बैठ कर भी जीवन की अपूर्णता का कांटा चुभ रहा है। तुम्हारे पाप कर्मों के विष ने तुम्हारी मन की शांति को जला है। रावण इसी अवस्था का नाम दुर्दशा है।

और यह कटु सत्य है कि धन-संपत्ति या बल वैभव चाहे जितना हो जाए परंतु यदि इंसान सत्य और धर्म के मार्ग पर नहीं है तो वह कभी सुखी नहीं रह पाता।
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बड़े ही सिद्ध दिव्य अस्त्र शस्त्रों से रावण, राम जी पर प्रहार करता है। राम जी उसके सारे शस्त्र काट डालते हैं। रथ सारथी पताका सब नष्ट कर देते हैं और फिर कहते हैं-

केवल पाशविक बल और अस्त्र शस्त्रों की गिनती से युद्ध नहीं जीते जाते रावण। युद्ध जीतने के लिए धर्म और आध्यात्मिक शक्ति परम आवश्यक है।

राम जी ने देखते ही देखते रावण को अस्त्र-शस्त्र हीन, रथ हीन, सुरक्षा हीन, सम्मान हीन कर दिया और बोले हम शस्त्रहीन और निहत्थे शत्रु पर कभी वार नहीं करते। अब जाओ कल फिर शस्त्र लेकर आना। रावण लज्जित अपमानित वापस जाता है और कुंभकरण को जगाने का प्रयास करता है। मतलब काल के समान रामजी से सामना होने के बाद भी रावण की आंखें नहीं खुलती वो अपने मद में ही चूर है।