वायु पुराण में भगवान शिव और भगवान विष्णु दोनों की पूजा का सामान वर्णन है फिर भी कुछ विद्वान इसे शिवपुराण और कुछ विद्वान इसे ब्रह्मांड पुराण का एक अंग मानते हैं परंतु नारद पुराण जहां अट्ठारह पुराणों की सूची बताई गई है वहां वायु पुराण को एक स्वतंत्र पुराण की ही मान्यता दी गई है ।
वायु पुराण में खगोल, भूगोल, सृष्टि का रचना क्रम, ब्रम्हांड का निर्माण, युगों की व्यवस्था, तीर्थों का वर्णन, शिवलिंग की उत्पत्ति का कथानक, पितरों का वर्णन, राजवंश, ऋषि वंश, वेद की शाखाओं, संगीत शास्त्र आदि का वर्णन मिलता है।
उपलब्ध साहित्य और मान्यता के अनुसार इस पुराण में एक सौ बारह (112) अध्याय और ग्यारह हजार (11000) श्लोक हैं। यह पुराण भी अधिकांश पुराणों की तरह पूर्व और उत्तर इन दो भागों में विभक्त है–
पूर्व भाग
वायु पुराण के प्रथम भाग में वायु देवता द्वारा श्वेतकल्प का वर्णन करते हुए धर्म के भिन्न भिन्न उपदेश किए गए हैं। संभवतः इसीलिए इसे वायु पुराण कहा जाता है। इस भाग में सर्ग (विभाग) आदि का लक्षण विस्तार से बताया गया है। अलग-अलग मन्वंतरों में होने वाले राजवंशों का पूरा वर्णन, गयासुर की कथा का सविस्तार वर्णन, वर्ष के बारह महीनों का महत्व साथ ही माघ महीने (अंग्रेजी महीने के अनुसार फरवरी के आसपास का महीना) की विशेष महिमा और इस महीने के दान धर्म पुण्य आदि कर्मों के विशेष फलों का वर्णन है। पूरे वर्ष में दान पुण्य और धार्मिक कार्यों की उपयोगिता और उनका फल बताया गया है।
धरती, आकाश, पाताल सहित दसों दिशाओं में स्थित या गतिमान अधिकारी देवताओं अथवा जीवों के संबंध में विस्तार से बताया गया है और साथ ही इनसे संबंधित व्रत नियम आदि का भी निरूपण किया गया है।
उत्तर भाग
नर्मदा जी के तीर्थों का वर्णन और शिव संहिता का विस्तार के साथ वायु पुराण के उत्तर भाग में वर्णन है। शिव जी को अजेय अजन्मा और सनातन बताया गया है। शिवलिंगों के प्रकट होने का विस्तार से वर्णन वायु पुराण में किया गया है। नर्मदा जी जिसके तट पर शिवजी निवास करते हैं उसके जल को ही ब्रह्म का स्वरूप बताया गया है। नर्मदा नदी को शिव जी का ही स्वरूप मानकर उनकी आराधना और पूजा करने का निर्देश दिया गया है। पुराण का कहना है कि भगवान शिव ने ही सभी लोकों एवं जीवों का कल्याण करने के लिए अपने शरीर से इस दिव्य नर्मदा नदी को प्रकट किया है।पुराण यह भी कहता है कि जो मनुष्य नर्मदा जी के उत्तर तट पर निवास करते हैं वे भगवान शिव के सेवक और अनुयायी होकर शिव लोकों को प्राप्त करते हैं और जो नर्मदा जी के दक्षिण तट पर निवास करते हैं वे भगवान विष्णु के सेवक और अनुयायी होकर विष्णु लोकों को प्राप्त करते हैं।
पुराण के प्रमाण और भौगोलिक आकार प्रकार के आधार पर भी नर्मदा जी के उद्गम स्थान ‘ॐकारेश्वर’ से लेकर पश्चिमी समुद्र तट तक नर्मदा जी में लगभग पैंतीस (35) नदियां समाहित होती है जिन्हें धार्मिक मान्यता में पाप नाशक संगम कहा गया है। इन पैंतीस (35) संगमों में से ग्यारह नदियां उत्तर तट से नर्मदा जी में मिलती हैं और तेईस (23) नदियां दक्षिण तक से नर्मदा जी में मिलती हैं। पैंतीसवां संगम स्वयं नर्मदा जी का समुद्र से है।
पौराणिक मान्यतानुसार नर्मदा जी के उद्गम से लेकर सागर संगम तक इन पापनाशक संगमों को मिलाकर लगभग चार सौ (400) तीर्थ स्थान हैं जबकि नर्मदा जी को कण-कण, पग पग पर तीर्थमई माना गया है।
वायु पुराण के अनुसार मानव सभ्यता का शुभारंभ सतयुग से होता है और उस युग में जीव प्रकृति से और परमात्मा से सीधे जुड़ा हुआ होता है। आत्म में स्थिति और पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है। वर्णाश्रम – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की व्यवस्था का आरंभ वायु पुराण के अनुसार त्रेता युग में होता है। त्रेता युग से ही मानव सभ्यता ने कृषि कार्य करना सीखा और परिश्रम का महत्व स्थापित हुआ।
वायु पुराण का कथानक बहुत ही सरल और आडंबर हीन है। यह पुराण हमें हमारे बीच स्थित नर्मदा जी और शिव जी के ज्योतिर्लिंगों का साक्षात्कार कराता है।
ॐ तत्सत