हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की

लव कुश द्वारा पकड़े गए यज्ञ के अश्व को छुड़ाने में राम जी की सेना के सेनापति, शत्रुघ्न और लक्ष्मण तक लव कुश द्वारा घायल कर दिया जाते हैं। अयोध्या में समाचार पहुंचने पर भरत जी युद्ध के लिए प्रस्थान करते हैं तो महराज सुग्रीव भी उनके साथ जाने की आज्ञा मांगते हैं राम जी कहते हैं– वानर राज आप इस समय हमारे अतिथि हैं, हम आप पर यह भार नहीं डाल सकते।

सुग्रीव जी कहते हैं -‘मैं अतिथि नहीं प्रभु का मित्र हूं और संकट के समय मित्र का धर्म है मित्र की सहायता करना।’ ये है मित्रता की वास्तविक परिभाषा।

भरत, सुग्रीव, हनुमान आदि यज्ञ का घोड़ा छुड़ाने पहुंचते हैं और ये सब भी कुश और लव से पराजित होते हैं। भरत और सुग्रीव घायल होकर छावनी में जाते हैं और हनुमान जी बंदी होकर लव कुश के पास रह जाते हैं। वास्तव में यहां एक संदेश है-कहीं ना कहीं शत्रुघ्न के मन में मथुरा विजय, लक्ष्मण के मन में मेघनाद विजय, भरत जी सुग्रीव जी आदि के मन में भी किसी ना किसी प्रकार का कोई अहंकार अवश्य आ गया था जिसे राम जी अपनी लीला से एक-एक करके समाप्त कर रहे थे।
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अंततः राम जी स्वयं निकल पड़ते हैं यज्ञ का घोड़ा छुड़ाने।

लव कुश का आमना-सामना होने पर दोनों तरफ से बाण चलने ही वाले थे कि महर्षि वाल्मीकि आ गए। उन्होंने लव कुश को समझाते हुए कहा कि  ‘ये हमारे राजा हैं और राजा के विरुद्ध शस्त्र उठाना पाप है।’ अच्छी प्रजा का गुण यही होना चाहिए कि यदि राजा न्याय पूर्वक राज कर रहा है तो उसका विरोध नहीं करना चाहिए।

परंतु आज की दशा देखिए-प्रजा अपने छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए राजा को अपशब्द कहने, आरोप-प्रत्यारोप लगाने और मारने तक का षड्यंत्र करने से बाज नहीं आ रही।
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महर्षि वाल्मीकि से राम कथा सुनते हुए लव कुश ने जब से यह सुना था कि राम जी ने महारानी सीता को त्याग दिया तब से उनके मन में रोष और प्रश्न था। जब रामजी सम्मुख आए तो कुश ने प्रश्न किया -‘जब आपको स्वयं महारानी सीता के सतीत्व पर कोई संदेह नहीं था तो आपने उनका त्याग क्यों किया?’

जिसका उत्तर रामजी ने यूं दिया-राजधर्म के कारण। एक साधारण मानव और राजा के धर्म में इतना ही अंतर है। एक साधारण मानव का प्रथम धर्म है अपने माता पिता ,पत्नी बच्चों, परिवार और सगे संबंधियों की रक्षा करना।उनको सुखी रखना और दुख में उनका साथ देना।

परंतु वही मानव जब राजमुकुट पहनकर राजा बन जाए तो उसका प्रथम धर्म केवल प्रजा रंजन होता है। उसके सारे कर्म प्रजा मत के अधीन होते हैं। राजा का सुख उसी में है जिससे प्रजा का कल्याण हो, प्रजा का रंजन हो। यही उसका पहला धर्म भी है और यही उसका आखिरी धर्म भी है।
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Jai Shriram 🙏

Gepostet von Arun Govil am Mittwoch, 3. Juni 2020

आज कुश और लव ने सारे संसार के विजेता योद्धाओं को धराशाई कर दिया था जिसके अनुसार वे इस समय धरती के सबसे महान योद्धा थे परंतु गुरुदेव के मात्र एक बार कहने पर दोनों ने रामजी से क्षमा मांगी और यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया।
— यह होते हैं आदर्श संस्कार।
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सीता जी तक जब यह सारा समाचार पहुंचा तो उन्हें दुख भी हुआ और इस बात पर क्रोध भी आया कि लव कुश ने प्रभु श्रीराम पर अपने धनुष बाण तान दिए। इसी दुख क्रोध और ग्लानि में सीता जी ने लव कुश को ये बता दिया कि महाराज राम ही तुम्हारे पिता हैं।

इसके बाद महर्षि वाल्मीकि की आज्ञा से कुश और लव अयोध्या जाकर अयोध्या की जनता को सीता जी के प्रति जागृत करते हैं और इसी क्रम में राम दरबार में उन्हें राम कथा कहने के लिए बुलाया जाता है। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो इस समय लव कुश विश्व के सबसे महान योद्धा, सबसे महान विद्वान नवयुवक हैं और उन्हें यह भी पता चल जाता है कि उनका पिता महाराजा रामचंद्र जैसा एक चक्रवर्ती सम्राट है।

फिर भी वे दोनों साधारण मुनि कुमारों की तरह अयोध्या की गलियों में घूम घूम कर सीता के प्रति जनता में विश्वास जगाते हैं और माता सीता का अधिकार मांगते हैं। ये है रामायण के पात्रों का चरित्र कि कुश और लव सर्वशक्तिमान, सामर्थ्यवान और उचित अधिकारी होकर भी सीधे अपने अधिकारों की मांग नहीं करते ना ही किसी प्रकार का शक्ति प्रदर्शन करते हैं।

इन संस्कारों, मर्यादाओं और धैर्य की आवश्यकता संसार के हर मनुष्य को है। आज इंसान अपने छोटे-छोटे अधिकारों के लिए कितने बड़े बड़े आंदोलन कर डालता है ये हम सब देख रहे हैं।