जातक कथा – जब हंसराज के सामने हार गया राजा का अहंकार

भगवान बुद्ध के द्वारा कही गई उनके पूर्व जन्म की कहानियों को जातक या जातक पालि या जातक कथाएं कहा जाता है। हालांकि मान्यता यह भी है कि कुछ जातक कथाएं उनके शिष्यों ने भी कही थी। जातक कथाएं लगभग 600 कहानियों का संग्रह हैं, जिनसे हमें नीति और धर्म को समझने में आसानी होती है। इन्हीं में से एक जातक कथा है कि एक समय मानस-सरोवर में धृतराष्ट्र और सुमुख नाम के दो स्वर्ण हंस रहते थे। धृतराष्ट्र एक राजा था जबकि सुमुख उसका सेनापति। दोनों हंसों के गुण और सौन्दर्य के चर्चे दूर-दूर तक फैले हुए थे।

वाराणसी नरेश को जब हंसों के बारे में पता चला तो उनके मन में हंसो को पाने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने राज्य में एक खूबसूरत सरोवर का निर्माण करवाया और घोषणा करवाई कि यहां बसने वाले सभी पक्षियों को सुरक्षा दी जाएगी। इसके बाद दूर-दूर से पंछी आकर यहां रहने लगे। जब इस सरोवर के बारे में मानस-सरोवर के हंसों को पता चला तो उनकी भी वाराणसी जाने की इच्छा होने लगी। लेकिन हंसो के राजा धृतराष्ट्र ने मना कर दिया। हालांकि कुछ दिनों बाद धृतराष्ट्र को हंसों की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और वह वाराणसी के लिए निकल पड़े।

वाराणसी नरेश को जब स्वर्ण हंसों के आने की सूचना मिली तो उसने एक निषाद को बुलाकर स्वर्ण हंसो को पकड़ने के लिए कहा। निषाद ने इसके लिए सरोवर किनारे एक जाल बिछाया। एक दिन धृतराष्ट्र जब सरोवर किनारे भ्रमण कर रहे थे तभी उनका पैर जाल पर पड़ गया। पकड़े जाने पर धृतराष्ट्र ने अपने साथी हंसो को तुरंत उस स्थान से जाने के लिए कहा। धृतराष्ट्र की आवाज सुनकर सभी हंस वहां से चले गए लेकिन सेनापति सुमुख वहीं खड़ा रहा। जब निषाद ने देखा कि जाल में एक ही हंस है जबकि दूसरा हंस उसके पास खड़ा है तो उसे आश्चर्य हुआ। निषाद ने इसका कारण पूछा तो सुमुख ने कहा कि उसके लिए स्वामी भक्ति जीवन से बढ़कर है। सुमुख के मुख से यह बात सुनकर निषाद का हृदय परिवर्तन हो गया और उसने दोनों ही हंसों को मुक्त कर दिया।

आजाद होने के बाद भी दोनों हंस वहां से नहीं गए क्योंकि उन्हें पता था कि निषाद को राजा के गुस्से का शिकार होना पड़ेगा। इसलिए वह निषाद के कंधे पर बैठकर राजा के दरबार में पहुंचे। जब वाराणसी नरेश ने हंसों और निषाद की कहानी सुनी तो तत्काल निषाद को दंड से मुक्त करके पुरुस्कार दिया। साथ ही हंसो को आतिथ्य प्रदान किया। दोनों हंस कुछ दिनों तक राजा के आतिथ्य में रहने के बाद पुन: मानस सरोवर लौट गए।