जब राजा खुद ही बन गया पुल, साथियों को अपने ऊपर से कराया नदी के पार

त्याग और बलिदान ऐसे गुण हैं जो किसी व्यक्ति को महान बनाते हैं। धन और बल से कमाया गया यश इंसान की मृत्यु के साथ ही चला जाता है, लेकिन त्याग और बलिदान से प्राप्त किया गया यश इंसान की मृत्यु के बाद भी रहता है। त्याग और बलिदान की ऐसी ही एक जातक कथा बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों को सुनाई थी।
कथा है कि किसी समय हिमालय में एक पहाड़ी नदी के तट पर अनूठा पेड़ हुआ करता था। इस पेड़ की खासियत यह थी कि उसके फल बड़े और बहुत ही स्वादिष्ट होते थे। फलो की सुगंध ऐसी थी कि किसी का भी मन मोह ले। उस पेड़ पर बंदरों का एक झुंड रहता था। उन बंदरों का एक राजा था जो अन्य बंदरों की तुलना में बड़ा, बलवान और बुद्धिमान था।

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इसलिए उसे महाकपि कहा जाता था। महाकपि ने अपने साथी बंदरों को निर्देश दिए हुए थे कि इस पेड़ का एक भी फल नदी में नहीं गिरना चाहिए वरना उसके परिणाम भयानक होंगे। बंदर भी राजा के आदेश का पालन करते थे।

एक बार पेड़ पर लगा एक फल पत्तियों के बीच पककर नदी में गिर गया और जल की धारा के साथ बहने लगा। उस समय उस देश का राजा अपनी पत्नियों और दासियों के साथ उसी नदी के तट पर विहार कर रहा था। जब वह फल उनके पास से गुजरा तो उसकी सुगंध से राजा, रानियाँ और उनकी दासियाँ आनंदित हो उठी। राजा ने तत्काल सिपाहियों को आदेश दिए कि वह फल लेकर आओ। राजा का आदेश पाकर सिपाहियों ने नदी में छलांग लगा दी और राजा को वह फल लाकर दिया। राजा ने जब वह फल खाया तो वह इतना स्वादिष्ट था कि राजा को और फल खाने व फल के स्त्रोत के बारे में पता करने की तीव्र लालसा जगी।

राजा अपने सिपाहियों के साथ धारा के बहाव की विपरीत दिशा में फल के पेड़ को ढूंढने के लिए निकल पड़ा। कुछ दूर चलने के बाद राजा और उसके सिपाहियों को स्वादिष्ट फल का पेड़ मिल गया। पेड़ पर बंदरों के समूह को देख राजा के सिपाहियों ने तीरों से बंदरों पर हमला कर दिया। महाकपि ने जब यह देखा तो उसने अपने साथियों को बचाने के लिए उस पेड़ की टहनी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और अपने दोनों पैर पहाड़ी पर स्थित एक बेंत की लकड़ी में फंसा कर एक पुल का निर्माण कर लिया। महाकपि ने बंदरों से कहा कि तुम सभी मेरे ऊपर चलते हुए पहाड़ी पर चले जाओ। महाकपि की बात सुनकर सभी बंदकर पहाड़ी पर चले गए।

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दूसरी तरफ जब राजा ने महाकपि के समर्पण को देखा तो उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वह महाकपि को जिंदा लेकर उनके पास आए। लेकिन अपने साथी बंदरों द्वारा कुचले जाने से महाकपि की हालत काफी गंभीर हो गई थी। राजा ने महाकपि के इलाज की काफी व्यवस्था की, लेकिन महाकपि को बचाया नहीं जा सका।