महर्षि विश्वामित्र का नाम पहले राजा कौशिक था, एक बार वो अपनी सेना के साथ जंगल में भ्रमण के लिए निकल गए, रास्ते में उन्हें महर्षि वशिष्ठ का आश्रम मिला, महर्षि वशिष्ठ ने, उनका और उनकी सेना बहुत सत्कार किया, और सबको भोजन कराया, राजा कौशिक को इस बात पर बहुत आश्चर्य हुआ कि, जंगल में आश्रम में रहने वाले महर्षि वशिष्ठ के पास इतनी सुविधाएँ कहाँ से आ गईं, जब उन्होंने ये जानना चाहा, तो महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें बताया कि, ‘मेरे पास नंदिनी गाय है, जो कामधेनु की पुत्री है, और स्वयं इन्द्रदेव ने मुझे ये गाय भेंट की थी|’
ये सुनकर, राजा कौशिक, नंदिनी को पाने के लिए जिद करने लगे, लेकिन वशिष्ठ ने मना कर दिया, तो फिर राजा कौशिक ने बल प्रयोग किया, लेकिन महर्षि वशिष्ठ की आज्ञा से नंदिनी ने अपने योग बल से सारी सेना को परास्त कर दिया, और राजा कौशिक को बंदी बनाकर वशिष्ठ के सामने प्रस्तुत किया, लेकिन राजा कौशिक ने वहां भी महर्षि वशिष्ठ पर आक्रमण कर दिया, तो वशिष्ठ ने क्रोध में आकर राजा कौशिक के एक पुत्र को छोड़कर बाकी सभी को शाप देकर भस्म कर दिया।
इस घटना के बाद राजा कौशिक ने राजपाट अपने पुत्र को सौंप दिया, और हिमालय में जाकर भगवान शिव की घोर तपस्या करके वरदान में कई दिव्यास्त्र प्राप्त किये। इसके पश्चात् वो फिर से महर्षि वशिष्ठ से युद्ध करने के लिए आ गए।
किन्तु इस बार भी वशिष्ठ ने उनका हर अस्त्र नष्ट कर दिया, और ब्रह्मास्त्र का संधान किया। सभी देवताओं ने आकर वशिष्ठ से प्रार्थना की और उन्हें शांत किया, उसके बाद वशिष्ठ ने ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया।
राजा कौशिक को अत्यंत पश्चाताप हुआ कि इतने बड़े बड़े दिव्यास्त्र होते हुए भी वह पराजित हो गये, तब उन्हें ज्ञान हुआ कि, क्षत्रिय बल से भी ज्यादा श्रेष्ठ ब्रह्म बल है, इसलिए उन्होंने फिर से तपस्या की, और ब्रह्मा ने उन्हें राजर्षी का पद प्रदान किया, परन्तु वे संतुष्ट नहीं हुए, क्योंकि उन्होंने ऋषि, महर्षि और उसके बाद राजर्षि तक की उपाधि ले ली, मगर कोई उन्हें ब्रह्मर्षि का दर्जा नहीं दे रहा था, जब भी कहीं ऐसी कोई चर्चा चलती, तो उन्हें यही सुनने को मिलता कि, ब्रह्मर्षि तो वशिष्ठ हैं।
और इसीलिए उन्होंने फिर से तपस्या प्रारम्भ की, और बहुत सारे अवरोधों के बाद भी तपस्या को पूर्ण किया, जिससे प्रसन्न होकर इन्द्रदेव ने उन्हें ब्राह्मण पद प्रदान किया, और वो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र बन गए|
इतना होने के बाद भी उनकी प्रतिज्ञा थी कि, जब तक महर्षि वशिष्ठ, उन्हें ब्रह्मर्षि पद नहीं देंगे, तब तक वे शांत नहीं होंगे। लेकिन ये तो संभव ही नहीं था, क्योंकि क्रोध में दोनों ने ही एक-दूसरे के पुत्रों तक को नष्ट कर दिया था|
इसके बाद विश्वामित्र ने और कठिन तपस्या शुरू की, कहते हैं उनके तप के प्रभाव से देवता भी कांप उठे, पर लंबी तपस्या का भी वैसा कोई फल नहीं मिला जैसा विश्वामित्र चाहते थे, आखिर उनका धैर्य जवाब दे गया, और उन्हें लगा कि, जरूर इसमें वशिष्ठ की कोई चाल है, वरना ऐसा क्या है कि, उनके अलावा दूसरा कोई ब्रह्मर्षि न बन सके। फिर उन्होंने तपस्या छोड़ी, और चल पड़े वशिष्ठ के आश्रम की तरफ, और उन्होंने तय किया कि, आज वशिष्ठ को छोडूंगा नहीं|
यही सब सोचते हुए विश्वामित्र, वशिष्ठ के आश्रम तक पहुंच गए। वहां जाकर उन्होंने देखा कि चांदनी रात में वशिष्ठ बैठे हुए अपने शिष्यों के साथ बातचीत कर रहे हैं, वहीं पास की झाड़ी में छिप कर विश्वामित्र, गुरु और शिष्यों के बीच की बातचीत सुनने लगे। एक शिष्य ने वशिष्ठ से पूछा, गुरुवर, ‘इस शांत रात्रि में प्रकाश फैला रहे इस शीतल चांद को देख कर आपके मन में कौन से भाव आ रहे हैं?’
वशिष्ठ बोले, ‘चांद की चांदनी वैसे ही पूरे संसार को प्रकाशित कर रही है, जैसे महर्षि विश्वामित्र का यश।’ ये सुनकर विश्वामित्र चकित रह गए, और सोचने लगे कि, मैं तो इन्हें मारने चला था, और ये मेरी प्रशंसा कर रहे हैं, और फिर उन्होंने वशिष्ठ के चरणों में गिरकर कहा, ‘ऋषिवर मुझे क्षमा कर दीजिये|’
वशिष्ठ ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘उठो ब्रह्मर्षि’, जैसे ही वशिष्ठ ने ये कहा, तो विश्वामित्र समेत समस्त शिष्यों को भी आश्चर्य हुआ, फिर महर्षि वशिष्ठ ने मुस्कुराते हुए कहा कि, ‘हे ब्रह्मर्षि आप हर तरह से इस पदवी के योग्य थे, लेकिन आपका अहंकार और इस पद की लालसा ही आपके मार्ग की बाधा थी, लेकिन जैसे ही अभी आप पश्चात्ताप के आंसुओं के साथ झुके, दोनों बाधाएं दूर हो गईं|’ और इस तरह महर्षि विश्वामित्र को वह पद मिल गया, जिसके वो अधिकारी थे|